ग़ज़ल :०७
आंशुओं की गलियों में ज़िन्दगी के फूल.
रोती हुयी कलियाँ भी हो रही है शूल
मन के तन ने आज ओढ़ लिया लिवाज़
पीड़ा भी कहे सबसे सदियों की भूल
सोने की चिड़िया हो गयी बुजुर्ग
सीमा के रस्ते उड़े तोपों की धूल
जनता का मंदिर क्यों मौन हो गया
परिधि ही भूल गयी केंद्रीय मूल
आंशुओं की गलियों में ज़िन्दगी के फूल.
रोती हुयी कलियाँ भी हो रही है शूल
मन के तन ने आज ओढ़ लिया लिवाज़
पीड़ा भी कहे सबसे सदियों की भूल
सोने की चिड़िया हो गयी बुजुर्ग
सीमा के रस्ते उड़े तोपों की धूल
जनता का मंदिर क्यों मौन हो गया
परिधि ही भूल गयी केंद्रीय मूल
Kya baat hai....????
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