ग़ज़ल -18
वक्त दर वक्त वो याद आने लगे
दिल की गहराइयों में सामने लगे
यक़ीनन ये दूरियां घटी और बढ़ी
हम यकीनों से सजदा कराने लगे
वो हमारे जेहन से गुजरे ही थे
शहर में वो बदनामी उठाने लगे
गुल भी अनजान है ख़ामोशी से
हम आहिस्ते खुशबू चुराने लगे
दोस्त बनके वो कुछ पल ही रहे
औ हम उनको बागबाँ बनाने लगे
वफ़ा का अयान ऐसा आलम हुआ
दोस्ती का कर्ज हम चुकाने लगे
वक्त दर वक्त वो याद आने लगे
दिल की गहराइयों में सामने लगे
यक़ीनन ये दूरियां घटी और बढ़ी
हम यकीनों से सजदा कराने लगे
वो हमारे जेहन से गुजरे ही थे
शहर में वो बदनामी उठाने लगे
गुल भी अनजान है ख़ामोशी से
हम आहिस्ते खुशबू चुराने लगे
दोस्त बनके वो कुछ पल ही रहे
औ हम उनको बागबाँ बनाने लगे
वफ़ा का अयान ऐसा आलम हुआ
दोस्ती का कर्ज हम चुकाने लगे
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